Mudras in Yoga : The Powe of Hand Mudras and their Meaning
हाथों की दस उंगलियों से विशेष प्रकार की आकृतियां बनाने की कला को हस्त मुद्रा कहा जाता है । किस प्रकार आप अपनी उंगलियों से विभिन्न मुद्रा बनाकर स्वयं ही अपनी चिकित्सा कर सकते हैं
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जानते हैं लेख से हस्त मुद्रा चिकित्सा के अनुसार हाथ की पांचों उंगलियां पांच तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं और ब्रह्मांडीय ऊर्जा के माध्यम से इन तत्त्वों को बल देती रहती हैं । हाथों की उंगलियों को आपस में जोड़कर भिन्न – भिन्न मुद्राएं बनाई जाती हैं ।
ये अद्भुत मुद्राएं करते ही अपना असर दिखाना शुरू कर देती हैं । पद्मासन , स्वस्तिकासन , सुखासन , वज्रासन में करने से जिस रोग के लिए जो मुद्रा वर्णित है उसको इस भाव से करें कि मेरा रोग ठीक हो रहा है , तब ये मुद्राएं शीघ्रता से रोग को दूर करने में लग जाती हैं । बिना भाव के लाभ अधिक नहीं मिल पाता । दिन में 20-30 मिनट तक एक मुद्रा को किया जाए तो पूरा लाभ प्राप्त हो जाता है ।
ज्ञान – मुद्रा
बड़े – बड़े ज्ञानी पुरुष जब जगत् को बोध देते हैं , तब ज्ञानमुद्रा करते हैं । भगवान श्री शंकराचार्य ने ज्ञानमुद्रा का वर्णन दक्षिणामूर्तिस्त्रोत्र में किया है।
स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो भद्रया मुद्रया । तस्मै श्री गुरुमूर्तये नमः इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥
अंगूठा ब्रह्म है । छोटी अंगुली सत्व गुण है । अनामिका अंगुली रजोगुण है । सबसे बड़ी जो अंगुली है , वह तमोगुण है । तर्जनी जीवस्वरूप है , जीव की प्रतीक है । जीव मेंअभिमान रहता है और इससे संस्कृत भाषा में इसको तर्जनी कहते हैं ।
पहले के वैर को याद करके किसी को बदला लेने की इच्छा हो , तो कनिष्ठा अंगुली आगे नहीं आएगी , अंगूठा भी आगे नहीं आएगा । तर्जनी ही आगे आएगी और ऐसा कहेगी कि समय आने दो , पीछे मैं इसको देख लूंगी । इस अंगुली में अभिमान है ।
इस अंगुली से तिलक नहीं होता । माला करने बैठो तो इस अंगुली का माला से स्पर्श नहीं होना चाहिए । यह जीव स्वरूप है।यह जीव तीन गुणों में मिलता है । इस जीव में सत्वगुण बहुत कम है । सुबह घण्टे दो घण्टे भगवद् सेवा स्मरण करने में थोड़ा हृदय पिघलता है , जब जीव सतगुण में रहता है ।
बाकी समस्त दिवस अधिकांश भाग में यह रजोगुण ही रहता है । रात्रि के समय तमोगुण में जाता है । इस प्रकार यह जीव तीन- गुणों में रमा रहता है । इन तीन गुणों का सम्बन्ध छोड़कर अंगूठे का , जो ब्रहम का प्रतीक है , सतत मानसिक सम्बन्ध ब्रह्म के साथ जोड़े रहें , ब्रह्म सम्बन्धी को सतत टिकाए रखें ।
अंगुष्ठ परमात्मा , ब्रह्म , समाधि या परमात्मा का प्रतीक है और तर्जनी जीवात्मा का । तर्जनी और अंगुष्ठ का संयोग जीव के ब्रह्म सारूप्य , ब्रह्मज्ञान या आत्मा की परमात्मभावापन्नता का सूचक है । तीनों सीधी अंगुलियां त्रिगुणातीत होने को उत्प्रेरित करती हैं । भगवान महावीर , गौतमबुद्ध व गुरु नानक देव के हाथों में यह मुद्रा देखी जा सकती है।
विधि
अंगूठे और तर्जनी अर्थात् प्रथम अंगुली के ऊपरी पोरों को आपस में स्पर्श करने से बनती है साधना , उपयोग हेतु दोनों हाथों की इस तरह ज्ञान मुद्रायें बनायें । अंगूठे और तर्जनी के अग्र भागों को केवल स्पर्श करें , मिलायें , जोर से नहीं दबाएं ।
लाभ
इस ज्ञान – मुद्रा के नित्य करते रहने से स्मरण – शक्ति और एकाग्रता बढ़ती है । मस्तिष्क की दुर्बलता दूर होती है । साधना में ध्यान लगता है मन , मस्तिष्क और स्नायु संस्था के तनाव को दूर कर , इनके रोगों को दूर करती है । नींद अच्छी आती है । उपासना , योग – साधना एवं आध्यात्मिक विकास में लाभप्रद है ।
पागलपन , क्रोध , चिड़चिड़ापन , मंदबुद्धि , अस्थिरता , अनिश्चितता , अकर्मण्यता , आलस्य , मानसिक तनाव दूर होता है । बुद्धिजीवी , विद्यार्थियों , मस्तिष्क सम्बन्धी काम करने वालों के लिए यह बहुत उपयोगी है । ज्ञान – मुद्रा के निरन्तर प्रयोग करते रहने से स्वभाव में परिवर्तन आता है । स्वभाव – परिवर्तन से क्रोध , चिड़चिड़ापन , चंचलता , लम्पटता दूर हो जाती है ।
मानस परिमार्जित होकर आत्मावलोकन की ओर प्रवृत्त होने की रुचि बनती है । मानसिक शक्ति बढ़ने से मानव अप्रत्याशित , बड़े – बड़े कार्य करने की क्षमता अपने में उत्पन्न कर लेता है । मन को शान्ति मिलती है । ज्ञान – मुद्रा से मस्तिष्क के रोग बिना दवाइयों के स्वतः दूर हो जाते हैं ।
बच्चों में ज्ञान – मुद्रा की आदत डाल लें तो उनकी बौद्धिक प्रतिभा बढ़ जायेगी । अनिद्रा, चिन्ताओं , मानसिक कार्यों , घबराहट , भय , अकुलता के फलस्वरूप अनिद्रा रोग हो जाता है । ज्ञानमुद्रा करने से नींद अच्छी आने लगती है ।
यूं तो मुद्रायें जब तक रोग रहे , तब तक ही करनी चाहिए । रोग ठीक होने पर नहीं करनी चाहिये , लेकिन ज्ञान – मुद्रा कभी भी , किसी भी स्थिति में उठते , बैठते , चलते , फिरते . सोते समय कभी भी कर सकते हैं । जितना आप ज्ञान – मुद्रा का अभ्यास करेंगे , उतना ही अधिक लाभ इससे मिलता रहेगा ।
अपान मुद्रा
विधि
अंगूठे से दूसरी ( मध्यमा ) एवं तीसरी ( अनामिका ) अंगुलियों के आगे के भागों को अंगूठे के भाग से मिलाने से अपान – मुद्रा बनती हैं । इसे करने के बाद प्राण – मुद्रा करें ।
लाभ
इस मुद्रा का प्रभाव तुरन्त होता है । गुदा , लिंग , घुटना , जांघ , उदर , कटि , नाभि , पिण्डली के रोग दूर होते हैं । पेट की वायु बवासीर , दस्ते , कब्ज ठीक होती है । मधुमेह , हृदय के रोग , दिल के रोग व उच्च रक्तचाप ठीक होता है ।
सिरदर्द , अनिद्रा बैचेनी ठीक होती है । दांतो की बिमारियों में फायदा होता है । अपान – मुद्रा के निरन्तर अभ्यास से शरीर के विजातीय द्रव्य शरीर से निकल जाते हैं । इस मुद्रा का अभ्यास अधिक से अधिक मुद्रा किया जा सकता है ।
यदि किसी व्यक्ति का मूत्र बन्द हो गया हो , पेशाब नहीं आता हो और किसी औषधि से भी मूत्र नहीं आता है तो अपान मुद्रा का अभ्यास 40 मिनट करने से बिना दवा के मूत्र आ जाता है । यदि पसीना नहीं आता हो , पसीना लाना आवश्यक हो तो अपान मुद्रा से पसीना आ जाता है ।
अपान – मुद्रा के अभ्यास से शरीर के अन्दर हर प्रकार का मल , गंदगी , कहींभी जमा हो , बाहर आ जाते हैं । अपान – मुद्रा से शरीर निर्मल हो जाता है ।
शून्य – मुद्रा
विधि
सबसे लम्बी अंगुली मध्यमा नं0- 2 को मोड़कर उसके पैर , नाखून के ऊपर वाले भाग को अंगूठे के नीचे बनी गद्दीवाली जगह को स्पर्श करें , छूये तथा नाखून के नीचे की गद्दी से मध्यमा अंगुली के ऊपरी भाग को दबाये । शेष तीनों अंगुलियों को सीधे रखें । इस तरह शून्य – मुद्रा बनती है रोग अंगूठे के ठीक होने पर इस मुद्रा को करना बन्द कर देना चाहिये ।
लाभ
इस मुद्रा के करने से कान के रोगों में लाभ होता है । कान – दर्द , कान बहना , बहरापन , कम सुनना तथा कान के हर प्रकार के रोगों में लाभ होता है । शून्य – मुद्रा के प्रयोग से शीघ्र चमत्कारी प्रभाव होता है ।
यदि कान – दर्द शुरू होते ही यह मुद्रा की जाये तो 5-7 मिनट में ही दर्द कम होना आरम्भ हो जाता है । इसके निरन्तर और लम्बे समय तक करते रहने से कान के पुराने असाध्य रोग ठीक हो जाते हैं । उच्च रक्तचाप , कामेच्छा कम होती है । इसकी अनुपूरक आकाश – मुद्रा है अर्थात् इससे पूर्ण लाभ नहीं होने पर शेष रोग आकाश – मुद्रा करने से दूर हो जाते हैं ।
आकाश- मुद्रा
विधि
यह मुद्रा अंगुष्ठ के साथ मध्यमा के पोर को मिलाने से बनती है । लाभ कान से सम्बन्धित रोगों से मुक्ति । हड्डियों की कमजोरी , जबड़े के रोग व हृदय के रोग ठीक होते हैं ।
सूर्य – मुद्रा
विधि
सुर्य की अंगुली को हथेली की ओर मोड़कर उसे अंगूठे से दबाएं । बाकी बची तीनों अंगुलियों को सीधा रखें । इसे सूर्य मुद्रा कहते हैं ।
लाभ
यह मोटापा घटाती है । जो लोग मोटे हैं , मोटापा से परेशान हैं , अपना मोटापा घटाने के लिए सूर्य – मुद्रा करें । थायराइड के रोग दूर होते हैं । मानसिक तनाव कम होता है । मांगलिक उत्सव , विवाह , पूजन आदि में तिलक लगाया जाता है ।
ललाट पर तिलक अनामिका एवं अंगूठे से लगाया जाता है । तिलक की विधि से तिलक लगाने वाला अपनी मंगल भावनाओं को तिलक लगवाने वालों में इस तरह प्रवाहित करता है । यौगिक दृष्टि से ललाट में जहां तिलक लगाया जाता है , वह स्थान द्विदल कमल का होता है , जो तिलक लगाने की विधि से स्पर्श होने से अदृष्ट शक्ति ग्रहण कर तेजोमय हो जाता है , व्यक्तित्व अच्छा बन जाता है ।
वायु- मुद्रा
विधि
प्रथम अंगुली , अंगूठे के पास वाली तर्जनी को मोड़ कर उसके नाखून के ऊपर वाले भाग को अंगूठे की जड़को गद्दी से स्पर्श करें और अंगूठे से उसे हल्का सा दबायें । शेष तीनों अंगुलियां सीधी खड़ी रखें । इस तरह वायु – मुद्रा बनती है । रोग ठीक होने पर यह मुद्रा नहीं करें । जब तक रोग रहे तब तक ही इस मुद्रा को करें ।
लाभ
समस्त वायु ठीक करने से ठीक हो जाते हैं । वायु से होने वाले हर प्रकार के दर्द , अन्य विकास इससे ठीक हो जाते हैं । जोड़ों के दर्द , गठिया , कम्पन , वाय , जिसमें हाथ पैर , शरीर का कोई अंग निरन्तर कांपता , हिलता रहता है , रेंगन वायु , वायु भूल , गैस , लकवा , पक्षपात , हिस्टीरिया आदि असाध्य समझे जाने वाले रोग वायु – मुद्रा से बिना औषधि लिए ठीक हो जाते हैं ।
साइटिका , घुटनों का दर्द , कमर – दर्द सर्वाइकल स्पोन्डिलाइटिस दूर होती है । ज्योतिष के हिसाब से शनि के दोष दूर होते हैं । किसी भी वायु रोग के आक्रमण होते ही 24 घण्टे में वायु – मुद्रा का प्रयोग करने से तत्काल रोग नियन्त्रण में आ जाता है । असाध्य रोगों में लम्बे समय तक इस मुद्रा को करना पड़ता है ।
यदि वायु – मुद्रा के प्रयोग से रोग में आशातीत लाभ शीघ्र नहीं हो रहा हो तो इसके साथ – साथ प्राण – मुद्रा का प्रयोग करने से शीघ्र लाभ होने लगता है । आत्मबल की कमी से दर्द अधिक होता है , जो प्राण – मुद्रा करने से ठीक हो जाता है । कम्पन वाय जिसमें हाथ , पैर , सिर कोई भी अंग लगातार स्वत हिलते हैं वायु – मुद्रा से ठीक हो जाता है । इस असाध्य रोगों में कभी – कभी साथ में प्राण – मुद्रा भी करते रहना चाहिये । वायु – मुद्रा से शरीर में वायु तत्त्व घटने लगता है और इससे वायु जन्य रोग ठीक हो जाते हैं ।
प्राण – मुद्रा
विधि
सबसे छोटी अंगुली व इसके पास वाली अंगुली संख्या 3 व 4 कनिष्ठा व अनामिका और अंगूठे के नाखून के ऊपरी भाग , पोरों को एक साथ आपस में स्पर्श करायें । शेष दो अंगुलियां – मध्यमा तथा तर्जनी को सीधे – खड़ी रखें । केवल अंगूठे के साथ कनिष्ठा और अनामिका को मिलायें । इस तरह प्राण – मुद्रा बनती है ।
लाभ
ऊर्जा शक्ति की वृद्धि होती है अन्न – जल त्यागने वाले या उपवास रखने वाले को सम्बल मिलता है । प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है । रक्त संचार होता है । यह नेत्र – ज्योति बढ़ाती है । चश्में का नंबर घटाने के लिए यह मुद्रा लाभदायक है प्राण – मुद्रा के करते रहने से शरीर निरोग रहता है यह मुद्रा प्राणशक्ति का केन्द्र है ।
प्राणशक्ति ही सारे शरीर का संचालन करती है । प्राणशक्ति प्रबल होने पर शरीर पर रोगों का प्रभाव नहीं होता । इसलिए प्राण – मुद्रा का अभ्यास स्वस्थ एवं रोगी दोनों के लिए लाभदायक है । इस मुद्रा को इच्छानुसार किया जा सकता है ।
इसके कम या अधिक होने से हानि नहीं होती । प्राण – मुद्रा के नियमित अभ्यास से नेत्र – शक्ति बढ़ती है , नेत्रों के सभी रोग दूर हो जाते हैं । हृदय – रोगों में लाभदायक है । आत्मबल बढ़ाती है । इसे वायु – मुद्रा के साथ करने से शीघ्र लाभ होता है । प्राण – मुद्रा सहयोगी मुद्रा है । इसे वायु मुद्रा , पृथ्वी – मुद्रा , अपान – वायु – मुद्रा करने के पश्चात् अवश्य करें । इससे लाभ होगा ।
पृथ्वी – मुद्रा
विधि
अनामिका ( सबसे छोटी अंगुली के पास वाली अंगुली संख्या तीन ) को अंगूठे के ऊपरी भाग से स्पर्श कराओ । शेष तीनों अंगुलिया सीधी रहें । ठीक तरह मुद्रा बनानासमझ लें । अनामिका और अंगूठे के पोरों को स्पर्श करने से पृथ्वी – मुद्रा बनती है । इसके बाद प्राण – मुद्रा करें ।
लाभ
पृथ्वी सदा पोषण करती है । इसी तरह पृथ्वी – कुा शरीर का पोषण करती है , शक्ति देती है । शारीरिक दुर्बलता दूर करने , ताजगी और मूर्ति बढ़ाने , विटामिन्स की पूर्ति करने , संकुचित विचारों में परिवर्तन लाकर प्रसन्नता , उदारता उत्पन्न करने , शरीर में तेज और बल बढ़ाना पृथ्वी – मुद्रा के अनेकानेक लाभ हैं ।
जीवन – शक्ति बढ़ती है । पांवों का कांपना ठीक होता है ।पृथ्वी – मुद्रा करने से पृथ्वी तत्त्व की कमी होकर शरीर को हष्ट – पुष्ट रखने की दिशा में आन्तरिक सूक्ष्म तत्त्वों में परिवर्तन हो जाते हैं । सभी प्रकार की कमजोरियां दूर हो जाती है ।
दुर्बल , पतले – दूबले व्यक्ति का जितना ( मोटापा ) नहीं होना चाहिये , उतना संतुलित भार कर देती है । पृथ्वी – मुद्रा का लम्बे समय तक अभ्यास करने से शरीर में आनन्द का उदय और रोम – रोम में ओज का संचार इसके अभ्यास का निश्चित फल है । पृथ्वी मुद्रा रोगी को प्राण – दान करती और निरोगी जनों को अपूर्व आनन्द देती है । सहिष्णुता का विकास होता है ।
वरुण मुद्रा
विधि
कनिष्ठा और अंगूठे के पोर को मिलाने से वरूण – मुद्रा बनती है । लाभ चर्मरोग , रक्त शुद्धि , शरीर में स्निग्धता और रक्त की कमी ( एनीमिया ) दूर होते हैं । चर्म का रूखापन , एक्जिमा और एलर्जी ठीक होते हैं ।
वहण – मुद्रा के नित्य अभ्यास से शरीर में जल – तत्त्व की कमी से पैदा होने वाले रोग दूर हो जाते हैं । जल की कमी से रक्त – विकार हो जाता है । शरीर में सूखापन , रूखापन आ जाता है , खिंचाव होने लगता है और दुखन पैदा हो जाती है । वरुण – मुद्रा करने से ये रोग दूर होकर शरीर स्निग्ध हो जाता है ।
अंगुष्ठ मुद्रा
विधि
बाएं हाथ का अंगूठा सीधा खड़ा कर दोनों हाथों की अंगुलियों को इस प्रकार आपस में फंसायें कि दायें हाथ की पहली अंगुली बाएं हाथ के अंगूठे व पहली अंगुली के बीच में आ जाये । सरल शब्दों में दोनों हाथों की अंगुलियों को आपस में फंसा कर बाएं अंगूठे को सीधा रखने से अंगुष्ठ – मुद्रा बनती है ।
लाभ
अंगुष्ठ – मुद्रा में अंगूठा महत्त्वपूर्ण है । अंगूठे में अग्नि – तत्त्व होता है । रन का गुण गर्मी उत्पन्न करता है । अंगुष्ठ – मुद्रा के अभ्यास से शरीर में गर्मी बढ़ने लगती है और बढ़ा हुआ कफ जल जाता है , सूख जाता है । सर्दी , जुकाम , खांसी होने पर अंगुष्ठ – मुद्रा लाभदायक है ।
अंगुष्ठमुद्रा का प्रयोग जुकाम ठीक करने में प्रभावशाली है । अत्यधिक ठंड लगना दूर हो जाता है । बुखार , मलेरिया , फेफड़ों के रोग , निम्न रक्तचाप ठीक होता है । मोटापा कम होता है । अंगुष्ठ – मुद्रा का कहीं – कहीं लिंग – मुद्रा नाम से उल्लेख मिलता है । इसे लिंग मुद्रा कहना उचित नहीं है । लिंग – मुद्रा के स्थान पर अंगुष्ठ मुद्रा कहना उचित है ।
वायु – अपान – मुद्रा
विधि
तर्जनी के अग्र भाग को अंगूठे की जड़ में लगाकर मध्यमा व अनामिका के अग्र भाग को अंगूठे से मिलाने से बनती है।
लाभ
इस मुद्रा का उपयोग हृदय रोग के आक्रमण होने पर प्राथमिक चिकित्सा के रूप में करने से लाभ होता है ।
शंख- मुद्रा
विधि
बाएं हाथ के अंगूठे को दायें हाथ की चारों अंगुलियों से पकड़े । दायें अंगूठे को बायें हाथ की तर्जनी ( पहली अंगुली ) से मिलायें । शेष तीनों अंगुलियां दायें हाथ की बनी मुट्ठी से लगा . कर सीधी रखें इस तरह शंख – मुद्रा बनती है।
लाभ
शंख – मुद्रा से गले के रोगों और वाणी – विकारों में लाभ होता है । वाणी सम्बन्धी रोग , गले के रोग , थायराइड के रोग , नाभिचक्र के रोग , पाचन संस्थान के रोग , आंतों व पेट के निचले हिस्से के रोग व स्नायुमण्डल के रोग दूर होते हैं । व्रजासन में शंख मुद्रा करने से तुतलाना , हकलाना ठीक होता है व रीढ़ की हड्डी के रोग , कमरदर्द आदि में फायदा होता है । जठराग्नि ठीक होकर भूख बढ़ती है ।
वैरागी – मुद्रा
वैरागी ( ध्यान मुद्रा ) पद्यासन में बैठकर अपने हाथ की तर्जनी अंगुली को अपने अंगूठे से मिला लें लेकिन अंगुली और अंगूठा सिर्फ एक दूसरे को हल्के से छूते हुए ही उनपर दबाव नहीं पड़ना चाहिए । हथेली पर दाई हथेली रखकर ध्यान – मुद्रा की जाती है । इससे एकाग्रता आती है । मस्तिष्क के रोगों के लिए उत्तम है ।
योग – मुद्रा
विधि
दाया हाथ हृदय के पास व बांया घुटने के ऊपर ज्ञान मुद्रा में । चित्त शांत रहता है , मस्तिष्क व हृदय के लिए ठीक है ।
लाभ
पागलपन , उन्माद , विक्षिप्तता , चिड़चिड़ापन , क्रोध , आलस्य , घबराहट , अनमनापन , डिप्रेशन , व्याकुलता , भय , निद्रा , अनिद्रा , स्नायुमण्डल के दोष , मस्तिष्क , सरदर्द ठीक होते हैं व स्मरण शक्ति बढ़ती है ।
जलोदर – मुद्रा
विधि
कनिष्ठा अंगुली को अंगूठे की जड़ से स्पर्श करें तथा अंगूठे के पोर को कनिष्ठा के ऊपरी मध्य भाग पर रखें ।
लाभ
इससे जल के रोग , जलोदर इत्यादि ठीक होते है । हिचकी रुकती है । इस मुद्रा से शरीर से जल की वृद्धि से होने वाले रोग ठीक होते हैं । शरीर के विजातीय द्रव्य बाहर निकलने लगते हैं , जिससे शरीर निर्मल बनता है , पसीना आता है , मूत्रावरोध ठीक होता है ।
लिंग मुद्रा
विधि
दोनों हाथों की उंगलियों को आपस में फंसाकर दांये अंगूठे को ऊपर खड़ा रखने से यह मुद्रा बनती है । इस मुद्रा से शरीर में गर्मी बढ़ती है । मोटापा कम होता है । कफ , नजला , जुकाम , खांसी , सर्दी संबंधी रोगों . फेफड़े के रोग , निम्न रक्तचाप आदि में कमी होती है ।
गिरीवर मुद्रा
यह मुद्रा मूत्रविकार और शरीर की शुद्धि करने में सहायक है ।
आत्मांजलि मुद्रा
यह दिमाग की एकाग्रचित्तता बढ़ाने में सहायक है ।
पृथ्वी सुरभि मुद्रा
यह पेट व पाचन संबंधी विकारों के उपचार में सहायक है ।